सोमवार, 25 जुलाई 2016

'डॉ साहब ..क्या डायबिटीस से बचाव संभव है?'

'डॉ साहब ..क्या  डायबिटीस से  बचाव संभव है?' 
"हाँ संभव है "





अगर घर में माँ-बाप में किसी को डायबिटीज है तो अापके लिये  यह जानकारी अनमोल है   -

"""मधुमेह - बचाव संभव है"""

रिस्क मधुमेह होने का :-
20% - घर में किसी एक को हो
40% - माँ-बाप में किसी एक को बीमारी हो
70% - एक को बीमारी हो, दुसरा डायबेटिक फैमली से हो 
99% - माँ-बाप दोनो को हो 

यह है इस शताब्दी का सबसे बङा समाचार :-

मधुमेह की मेहरबानी आज भारतीय समाज को जिस अभिशाप से कुंठित और जर्जर कर रही है, उससे निकलने के लिए समस्या की तह तक जाना होगा। मधुमेह नई बीमारी नहीं है, यह सही है। सुश्रुत संहिता में मधुमेह के दो प्रकारों का विवरण है, एक जो अनुवांशिक कारणों से होता है तथा दूसरा जो अवैज्ञानिक खानपान और रहन सहन से होता है। हृदय आघात स्ट्रोक आदि कई खतरनाक बीमारीयों का इसे जनक माना जाता है। इस बीमारी की जकड़ आज जिस तबाही को इंगित कर रही है, इससे क्या बचा जा सकता है यह प्रश्न चिकित्सा जगत में काफी प्रमुखता से उठाया गया है। क्या बीमारी के चंगुल में आकर उच्च रक्तचाप, एनजाइना, स्ट्रोक आदि को झेलना आधुनिकता की निशानी है या कोई सम्भावना है-हम नकार सकें, हम बच सकें, इस बीमारी को टाल सकें।

आंकड़ों में उत्तर :-

1979 में किये गये सर्वेक्षण से (आई सी एम आर- आहूजा) भारत में पहली बार-प्रमाणिक तथ्य इस बीमारी की व्यापकता के बारे में मिले। इसके बाद यह पाया गया कि वैसे भारतीय जो विकसित देशों में जा बसे उनमें मधुमेह की व्यापकता ज्यादा पायी गयी है। इसके बाद यह सोचा जाने लगा कि क्या मधुमेह होने की दर गांव और शहरी लोगों में एक ही है या अलग। 

नवीनतम सर्वेक्षण केवल चौंकाने वाले ही नहीं बल्कि दहशत और उदासी पैदा करने वाले हैं। देहाती क्षेत्रों में बीमारी की व्यापकता-दर जबिक 1 प्रतिशत है, शहरी क्षेत्रों में यह 2 प्रतिशत से बढ़कर 8 से 30 प्रतिशत तक जा पहुंचा है। मद्रास में 1992 में हुए सर्वेक्षण में रामचन्द्रन ने बीमारी की व्यापकता दर देहाती क्षेत्रों में 2.4 प्रतिशत पाया जबकि इसी इथनिक समुदाय के लोगों में शहरी क्षेत्रों में 8.2 प्रतिशत। सन 2001 के सर्वेक्षण में यह आंकड़ा शहरों में 13.9 प्रतिशत एवं गांवों में 4.2 प्रतिशत हो गया है। 
इस अन्तर का कारण जीवन में निहित कुछ खास तथ्य ही हो सकते हैं। शहरी जीवन में अधिक तनाव, व्यायाम का अभाव, शिथिलता, ऐसा भोजन जिसमें सेचुरेटेड फैट ज्यादा है, अधिक मात्रा में ग्लुकोज वाली चीजें खाना, रिफाईन्ड तेलों का सेवन, फाइवर रहित भोजन आदि की प्रचुरता है। इसी तरह शहरी लोगों में सौफ्टड्रिंक, मिठाईयां, स्नैक्स आदि भोज्य पदार्थों की प्रचुरता है जिसमें फैट और सुगर ज्यादा है। इन अन्तरों के कारण यदि देहाती और शहरी दर में फर्क है तो इन्हीं चीजों पर ध्यान देकर मधुमेह से बचने की संभावना प्रबल है। 

बीमारी होने के पहले ही कुछ खास आदतों को अपना कर स्वस्थ रहा जा सकता है। बचपन से ही नियमित व्यायाम और खाने की चीजों पर ध्यान देकर जैसे संतुलित प्रोटीन, फाइवर युक्त पदार्थ, मिठाईयां और तलीय पदार्थों से बचना तथा संतुलित शारीरिक वजन को अपनाना आवश्यक है। अधिक मात्रा में ग्लुकोज वाली चीजों का सेवन धीरे-धीरे अग्नाशय (पैनक्रियाज) के बीटा कोशिकाओं को नाकाम कर देता है। समाज के कुछ खास वर्ग हाई रिस्क ग्रुप में आते है, जिनमें इस बीमारी के होने की प्रबल सम्भावना है। जैसे घर में माँ या पिता का बीमारी से पीड़ित रहना, वैसे बच्चे जिनका वजन जन्म के समय आठ पौण्ड से ज्यादा हो, मोटे लोग तथा कम उम्र के लोगों में एनजाइना आदि का होना। ऐसे हाई रिस्क ग्रुप के लोगों को विशेष तौर से सतर्क रहनें की जरूरत है। उन्हें डेकाड्रान ग्रुप की दवाएं, फैमली प्लानिंग की गोली, अलकोहल आदि से बच कर रहना है। अपने ब्लड कोलेस्टरोल और ट्रागलाइसेराइड को ठीक रखें, रक्तचाप को सही रखें तथा वजन संतुलित करें। कम से कम चार किलोमीटर रोज पैदल चलें। इस सलाह के परिणाम बहुत व्यापक और सुखद होंगे। 

टाइप- वन मधुमेह जो किशोरावस्था के समय होता है, उसमें सम्भवतः किसी वाइरल इन्फेक्शन से बीटा सेल नष्ट हो जाते हैं, जेनेटिक कानसेलिंग का कुछ ज्यादा महत्व नहीं है। कुछ खास केसों में आइजलेट सेल एन्टीबॉडी को रक्त में पाकर साइकलोसेरीन ग्रुप की दवाएं देने के असर को अभी परखा जा रहा है।

द्वितीयक निवारण :-

बीमारी का जितना जल्दी हो पता करना, इसके प्रोग्रेस को रोकना, और बीमारी से होनेवाले खतरों को स्थगित करना द्वितीयक निवारण में आते हैं। हाई रिस्क ग्रुप के लोगों में तीस के बाद हर साल कम से कम एक बार रक्त शर्करा की जांच आवश्यक है। जो लोग सामाम्न्य ग्रुप के हैं उन्हें भी रक्तशर्करा की जांच साल में एक बार करवा लेना चाहिए। स्मरण रखें, रक्त शर्करा सामान्य रखकर आप इसके खतरनाक दुष्पिरणामों को टाल सकते है। 
जिन्हें बीमारी हो चुकी है, उन्हें खान-पान का पूरा संयम रखना जरूरी है। किन्तु व्यवहार में लोग महीनों बिना जांच के दवाइयाँ खाते रहते है, जो पूर्णतः अवैज्ञानिक है। दुख का विषय यह है कि भारत में मधुमेह के बारे में उचित हेल्थ ऐजुकेशन का आभाव है। जबकि मधुमेह कन्ट्रोल में इससे मह्तवपूर्ण कुछ है ही नहीं। यह ऐसी बीमारी जिसके बारे में रोगी की जानकारी बहुत मायने रखती है। थोङी सी भुल-चुक हुई कि फंसे। मसलन दवा खाते हुए उपवास या ज्यादा शारीरिक मेहनत की तो रक्तशर्करा काफी कम होने से बेहोशी हो सकती है। रक्तशर्करा कमने लगे तो बैचैनी, घबराहट, पसीना आने की शिकायत, कम्पन आदि होने लगता है। रोगी को पता होना चाहिए कि किस समय तुरंत ग्लुकोज, मधु या शरबत आदि ले लें। इसी तरह पैरों की सुरक्षा,आंखो की जांच और किडनी रोग के लिए माईक्रो अलबुमिनुरिया की जांच आदि के बारे में अपने चिकित्सक से पूरी जानकारी ले लें।

साराशं::-

1. मधुमेह से बचने के लिए पूर्णतः प्राकृतिक जीवन जीना होगा, यह संदेश देहाती और शहरी क्षेत्रों में मधुमेह की व्यापकता दर के अन्तर से ध्वनित होता है। 

2. मधुमेह के रोगियों को सही जानकारी और सही दिशा निर्देश की जरूरत है, जिस पर चलकर वे मधुमेह के खतरनाक परिणामों से बच सकते हैं।



इस अनोखे साईंस को जानिए :-

टाइप टू डायबिटीज के करीब 333 मिलीयन लोग पूरे विश्व में सन् 2025 तक हो जायेंगे और यह स्थिति चिकित्सा जगत के साथ साथ राजनीतिक हलको में भी चिन्ता का विषय बनी हुई है। पहले यह पता नही था कि डायबिटीज बीमारी से बचा जा सकता है। पिछले दो या तीन सालों के अन्दर ही यह सिद्ध हुआ है कि वैज्ञानिक ढंग से यह सम्भव है। इस जानकारी को व्यक्तिगत एवं सामाजिक तौर से कैसे फैलाया जाए, यह पूर्णतः एक कला है। 

वैज्ञानिक जानकारी को बिना कला या आर्ट के समन्वय के जनसुलभ एवं रिजल्ट ओरिएन्टेड बनाना सम्भव नहीं है। जनता के बीच सामाजिक, आर्थिक, व्यवहार जनित एवं संस्थागत कठिनाइयाँ हैं, जो हाई क्वालिटी जानकारी को व्यवहार में लाने से रोकते है। हमारी मुख्य समस्या आज यही है कि लोगों को सही भोजन, उचित व्यायाम की जानकारी दें एवं मेडिकेशन जनित भूलों को दूर करें।

भारत में टाइप टू डायबिटीज के करीब 98 प्रतिशत से ज्यादा मरीज हैं और केवल पिछले 5 सालों में डायबिटीज होने की दर में 40 प्रतिशत इजाफा हुआ है। इसके दो ही कारण है-

1. शरीर में इन्सुलीन काम नही करना

2. इन्सुलीन स्रावित होने की क्षमता का क्षय हो जाना

इन दोनों कारणों के विभन्न वातावरण जनित और जेनेटिक फैक्टर हैं।

नवीनतम शोधों के परिणाम :-

अब हमारे पास पर्याप्त वैज्ञानिक आंकड़ें हैं जो बता रहे हैं कि डायबिटीज को रोकना सम्भव है। और मुख्यतः मोटापा को घटाकर एवं शारीरिक श्रम बढ़ाकर ऐसा करना सम्भव है। इससे नाकाम हुए इन्सुलीन की संवेदनशीलता बढ़ जाती है एवं इन्सुलीन की स्रावित होने की क्षमता में इजाफा होता है। 

कुछ वर्षों पहले (1991 एवं 1997 में) स्वीडेन एवं चीन में हुए शोधों ने संकेत दिया था कि भोजन एवं व्यायाम में सर्तकता अपना कर डायबिटीज होने की सम्भावना को कुछ हद तक रोका जा सकता है मगर शोधों में कुछ वैज्ञानिक दोष होने के कारण इसे मेडिकल जगत में पुष्टि नहीं मिली। अब चार मुख्य शोधों में ऐसा दोष नहीं है। फिनिश स्टडी सन 2001 में प्रकाशित हुई एवं 522 से ग्रस्त लोगों को दो भाग में बांटा गया। एक ग्रुप में भोजन एवं व्यायाम द्वारा इन्टेसिभ एक्शन लिया गया और दूसरे ग्रुप को ज्यों का त्यों छोड़ दिया गया। साढ़े तीन साल बाद जिस ग्रुप में इन्टरवेन्शन लिया गया उसमें डायबिटीज होने की दर आपेक्षिक ढंग से 58 प्रतिशत कम गयी। दूसरी महत्वपूर्ण स्टडी डी.पी.पी. (डायबिटजी प्रिवेन्शन प्रोग्राम) सन् 2002 में न्यू इंगलैण्ड जनरल में प्रकाशित हुई। इसमें 3232 लोगों को जिनका ग्लुकोज टोलरेन्स इमपेयर्ड था अध्ययन के लिए चुना गया। एक ग्रुप को स्टैण्डर्ड खानपान एवं व्यायाम संबंधी जानकारी के साथ रखा गया। दूसरे ग्रुप में कुछ भी इन्टरवेन्शन नहीं लिया गया। तीसरे ग्रुप को इन्टेसिभ लाईफ स्टाइल मोडिफिकेशन पर रखा गया। इनके लिए विशेष मैनेजर नियुक्त किए गए जो हर तीन महीने पर इनसे मिलते थे। इनका क्लास लेते थे एवं वे क्या खा रहे हैं, कितना व्यायाम कर रहे हैं इसका जायजा लेते थे। यह एक दुरूह कार्य था। इस पर करोड़ों रूपये खर्च हुए। इस स्टडी के एक ग्रुप में मेटफारमिन नामक दवा का भी इस्तेमाल हुआ। दो साल आठ महीने अध्ययन के बाद डी. पी. पी स्टडी से हमें बताया कि इन्टेसिभ लाइफ स्टाइल मोडिफिकेशन वाले ग्रुप में आपेक्षिक ढंग से डायबिटीज होने की दर में 58 प्रतिशत की कमी हुई। इसी तरह के दो और अध्ययनों में (ट्राइपाड (2002) एवं स्टाप एन.आई.डी.डी.1998 एम.) यह पाया गया कि वैसे लोगों में जिन्हें डायबिटीज होने का रिस्क ज्यादा है यदि हम सही भोजन एवं फिजिकल एक्टिभिटी बढा दें तो डायबिटीज को होने से रोका जा सकता है या बहुत दिन तक डिले किया जा सकता है।

महत्वपूर्ण वैज्ञानिक जानकारियाँ क्या हैं - सही पोषण :-

डायबिटीज के होने में फास्ट फुड हैमबर्गर कोला कल्चर का मुख्य हाथ है। इसके लगातार खाने से शरीर में आक्सीडेटिव स्ट्रैस पैदा होता है और जरूरत से ज्यादा फ्री रेडिकल (जहर) बनते हैं जो पैनक्रियाज की बीटा सेल्स से इन्सुलीन बनाने एवं स्रावित करने की क्षमता को धीरे-धीरे नष्ट कर देते हैं। फास्ट फूड कल्चर की जगह अब स्लो फूड कल्चर की ओर हमें तुरन्त मुड़ना चाहिए। डाक्टरों ने स्लोफूड कल्चर का जो नारा दिया है वह अत्यन्त प्रासंगिक है। यह बीटा सेल्स को नवजीवन देगा। अगर फास्ट फूड किल्स यू फास्ट तो स्लोफूड आपको सालों साल सुरक्षित एवं स्वस्थ रखेगा।


स्लोफूड क्या है:-

1. खाने में करडीतेल, सनफलावर तेल, वनस्पति कोकोनट तेल, घी (ज्यादा मात्रा में मक्खन) कार्न तेल का उपयोग बन्द करें। सरसों तेल, कनोला तेल, रेपसीड तेल आलिव आयल का प्रयोग शुरू करें। 
2. सप्ताह में दो या तीन बार मछली का प्रयोग करें। बिना तले हुए सीधे मछली का झोल बनाकर खाएं। शाकाहारी लोगों को मेथी, तिल (फ्लेक्स सीड), पत्तेदार साग नियमित प्रयोग करना चाहिए। इससे शरीर में एन 3 फैट प्रर्याप्त मात्रा में मिलती है। उरद दाल एवं राजमा का प्रयोग ज्यादा करें।
3. दूध (आधा लीटर प्रति दिन, या दही लेने से पूरा कैलशियम, बिटामीन ए एवं डी एवं प्रोटीन मिलता है।
4. ताजे फल 3 से 5 बार अवश्य खाएं। सेब, संतरा, मौसमी, आम, केला, अंगूर, पपीता, गाजर, तरबूज, अमरूद, टमाटर, बेर, जामुन, जैसे फल अत्यन्त उपयोगी हैं। 
5. अंकुरित चना या मूंग राज खाएं
6. बादाम एक मुट्ठी प्रतिदिन (आमन्ड नट) अत्यंत उपयोगी है। 
7. उसना चावल एंव चोकर सहित गेहूं का ही प्रयोग करें।


फिजिकल इनएक्टिभिटी के खिलाफ युद्ध शुरु करना है:-

अगर देश को डायबिटीज की महामारी से बचाना है तो फिजिकल एक्टिभिटी को दिनचर्या का भाग बनाना अति आवश्यक है। हमने डायबिटीज की बीमारी को जेनेटिक कारण से समझ कर पल्ला झाड़ लिया है मगर वैज्ञानिक हकीकत यह है कि आनुवांशिक कारणों का हाथ डायबिटीज में 1 से 2 प्रतिशत ही होता है - 98 प्रतिशत डायबिटीज रोज शारीरिक श्रम न करने एवं भोजन में ज्यादा कैलोरी खाने से होता है। फिजिकल इनएक्टीभिटी से इन्सुलिन रेसिसटेन्स यानी नाकामी की दशा तुरंत हो जाती है। शारीरिक श्रम द्वारा डायबिटीज से कैस बचाव होता है इसका पूरा साईन्स अब मोलेकुलर लेवल पर हम बता सकते हैं।

बचाव के तरीके क्या हो सकते हैं:-

पूरी जनसंख्या को स्क्रीन करना कि कितने लोगों को डायबिटीज होने का रिस्क है, एक बीहड़ कार्य है। इसिलए इस समय हाई रिस्क स्क्रीनींग पर ध्यान देना जरूरी है। जिनलोगों में इम्पेयरड ग्लुकोज टालरेन्स की अवस्था है उन्हें तुरंत लाईफ स्टाइल मोडिफिकेशन शुरू करनी चाहिए।

अगर केवल 5 प्रतिशत भी वजन कम कर दिया जाए एवं हफ्ते में छह दिन भी 30 मिनट तेज टहलने का क्रम शुरू कर दिया जाए तो इससे डायबिटीज का बचाव होता है। नियमित योगासन एवं प्राणायाम का भारी महत्व है। इससे इन्सुलिन रिसेप्टर का अपरेगुलेशन होता है एवं इस तरह इन्सुलीन की संवेदन शिलता बढ़ जाती है।

कम्यूनिटी लेवेल इन्टरवेन्शन की भी जरूरत है। अगर टहलना जरूरी है तो टहलने के लिए पर्याप्त जगह की व्यवस्था करना सामाजिक दायित्व है। मधुमेह को लेकर तरह-तरह का भ्रम फैला हुआ है। उसे दूर करना भी जरूरी है। जन-जागरूकता जरूरी है मगर लोग लगातार शारीरिक श्रम के लिए प्रेरित हों इसका प्रयास भी जरूरी है। साईन्स अपनी जगह पर ठीक है मगर समाज तक वह जानकारी कैसे जाए यह सोशल साईन्स एवं रिसर्च का मामला है।

डायबिटीज होने का इन लोगों को हाई रिस्क है:-

- उम्र 45 से ज्यादा।
- मोटापा (बी. एम. आई 25 से ज्यादा)।
- घर में मां-बाप में किसी को डायबिटीज हो।
- जो लोग रोज शारीरिक श्रम नहीं करते हैं।
- अफ्रिकन-अमेरिकन, नेटिभ अमेरिकन, एशियन, पैसिफिक आइजलैन्डर आदि हाई रिस्क इथनिक ग्रुप के लोग।
- जिनमें प्री-डायबिटीज यानि फास्टिंग सुगर 100 से 126 के बीच एवं 2 घन्टे बाद पी.पी. सुगर 140से 200 से के बीच हो। 
-गर्भावस्था के दौरान डायबिटीज की हिस्ट्री हो या बच्चा 9 पौन्ड से ज्यादा वजन का हो।
- रक्तचाप 140-90 से ज्यादा हो।
- एच.डी.एल. कॉलेस्ट्राल 35 से कम एवं ट्रायग्लेसाइड 250 से ज्यादा हो।
- औरतों में पोलीस्सिटिंक आवेरियन डिजिज हो।
- जिनको स्ट्रोक आदि हुआ हो।

(एशोसियेशन ऑफ फिजिसियन्स ऑफ इण्डिया के राष्ट्रीय सम्मेलन में डा. एन. के. सिंह द्वारा प्रस्तुत शोध पर आधारित)

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